डा ओमकार गुप्ता
संयोजक
एसपीएम विद्यालय प्रबंधक संघ, भारत।
मेरठ, 29 अप्रैल। इस समय एक ही विषय चर्चा में काफी चल रहा है वो है पब्लिक स्कूलों की फीस। नेता हो या अभिनेता, अमीर हो या गरीब, पढा लिखा हो या अनपढ़, हर व्यक्ति की प्रबल इच्छा है कि जहां उनके ननिहाल ने शिक्षा ग्रहण की है, उस स्कूल की फीस ना देनी पडे। स्कूल की फीस मारने के लिए वह ऐडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं इतना ही नहीं शायद सरकार और न्यायपालिका भी यही सोचती है कि अभिभावकों द्वारा पब्लिक स्कूलों की फीस ना देने से अर्थ व्यवस्था मजबूत हो जायेगी।
सरकार अपनी तरफ से ना तो बिजली का बिल माफ करेगी और न ही अभिभावकों को चार माह की फीस अभिभावकों को लोटायेगी।
सरकारी स्कूल जहां 50 हजार से 60 हजार रुपये प्रति अध्यापक खर्च करने के बाद भी बच्चों का अकाल सा पडा है दूसरी ओर पब्लिक स्कूलों में फीस भी बहुत अधिक है वहाँ सीट खाली नहीं है वहाँ अभिभावकों को फीस ना देने के लिए उकसाया जा रहा है। क्या अभिभावक और सरकार पब्लिक स्कूलों को सरकारी स्कूलोंके समान बनाना चाह रही है?
बच्चों को पढ़ाने के बाद स्कूल संचालक फीस की उम्मीद लगाता है ताकि वह शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों की तनख्वाह दे सके। स्कूल संचालक भूल गया कि सारी अर्थव्यवस्था तो स्कूल की फीस पर ही चल रही है!
वैसे भी जब कोई मकान बनाता है तब स्कूल की फीस नहीं दे पाता, जब गाडी खरीदता है तब स्कूल की फीस रोकता है, घर में कोई शादी होती है तब स्कूल की फीस रोकता है,
कोई बिमार होता है तो स्कूल की फीस रोककर इलाज करता है, फसल कम हुई तो स्कूल की फीस नहीं दे सकता। ऐसा लगता है कि कमोबेश सारे काम स्कूल की फीस रोककर ही पूरे होते हैं।
एक बार तो व्यवस्थापक को ऐसी फीलिंग आने लगती है कि सारी अर्थव्यवस्था स्कूल फीस पर ही निर्भर है इन सबके बावजूद भी सरकार और अभिभावक कह रहे है की स्कूल वाले चोर हैं, अभिभावकों को लूटा जा रहा है ,घोर अत्याचार हो रहा है ,बच्चों के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है जबकि सच्चाई यह है कि डूबती फीस के कारण स्कूल डूबने के कगार पर हैं
जिन स्कूलों में एक से दो लाख डोनेशन देकर बच्चों की एडमिशन होती है वे स्कूल बड़े-बड़े नेताओं और ओद्योगिक घरानों के हैं जिनके खिलाफ कोई सरकार कुछ नहीं कर सकती मरणा तो सेवाभावी लघु स्कूलों का हो ।
प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढ़ाना प्रत्येक अभिभावक का सपना होता है यानीं पढ़ाना भी प्राइवेट स्कूल में है और फीस का भी रोना है
कभी किसी कार खरीदने वाले को यह शिकायत नहीं करते देखा कि Honda की कार 8 लाख रुपए की है और Maruti कार 3 लाख रु की हे । डॉक्टर का दवाओं के लिये कमीशन हैं कि नहीं , अस्पताल महंगी दवाई देते हैं कि सस्ती ,इन का मूल्य एक समान होना चाहिए कि नहीं ।
आज के भौतिकवादी समय में प्रत्येक वर्ग के लिए आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार विकल्प उपलब्ध है ।
फ्री में बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकारी स्कूल का विकल्प सदैव खुला है ,लेकिन पढ़ाई की गारण्टी नही ।
अभिभावक यह भी जानता है कि निजी स्कूल में पैसा तो खर्च होता है पर पढाई की गारण्टी भी होती है । प्राइवेट सेक्टर की बड़ी बड़ी नामी संस्थाओं में होने वाले खर्चो को देखते हुए वहां वैसी भौतिक सुविधाएँ भी होती है जिसे आम आदमी वहन नही कर सकता । गांव ,कस्बों व् शहरों में छोटे छोटे स्कूलों में ली जाने वाली फीस उनके द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर आधारित होती है । किन्तु आजकल सरकार और अन्य तथाकथित लोग प्राइवेट स्कूलों को बदनाम करने पर आमादा हे । सरकार के नित नए नियम परेशानी का सबब बन रहे हैं जो अभिभावकों को भी गुमराह कर रहे हैं । प्राइवेट स्कूल बंद हो जाने पर क्या राज्य सरकार 40000 प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले लगभग 20000000छात्रों को शिक्षा दे पायेगी ? क्या इन स्कूलों के लगभग 1200000 शिक्षकों व् कर्मचारियों को रोजगार दे पायेगी ? यदि यह सम्भव नही है तो सरकार स्ववित्तपोषी रूप में चलने वाली स्कूलों में अनपेक्षित हस्तक्षेप को बंद करें व् अपने दायित्व का बिना राग द्वेष के निर्वहन करें ।
डा ओमकार गुप्ता
संयोजक
एसपीएम विद्यालय प्रबंधक संघ, भारत।
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